गुरुवार, 21 मई 2015

माँ

वो दूध नहीं ही अंश लहू के , पीकर जिसको बड़े हुए।
वो हाथ नहीं भी ज्योति समां की , पाकर जिसको चल पड़े।
पाले तन में, मन से सबको, कैसा भाग्य विधाता है।
चुप रहकर सब सह लेती , जग में बस एक माता है।
कितना हो अँधियारा पथ में , फिर भी आस जगती है।
कितना हो अवगुण दुर्गुण , फिर भी प्रेम पिलाती है।
कहने को बस माँ है , जीवन पुण्य लुटाती है।
आंच आये अपनों पर गर , सीता , सावित्री बन जाती है।
माँ ,बहन , बेटी बन भगिनी , हर रूप का तेरे गान मै गाँऊ।
हे जननी हे जग के मूल , कैसे तेरा मान बचाऊ।
हे माँ भर ले आँचल में , अब तेरे बिन मै रह ना पाऊ।
सदा मै चाहू शीतलता , बस तेरे आँचल की छांवों का।
मांगू ईश्वर से बस अब , सेवा तेरी चाहों का।

सुनील

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here माँ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें