वो दूध नहीं ही अंश लहू के , पीकर जिसको बड़े हुए।
  वो हाथ नहीं भी ज्योति समां की , पाकर जिसको चल पड़े।
  पाले तन में, मन से सबको, कैसा भाग्य विधाता है।
  चुप रहकर सब सह लेती , जग में बस एक माता है।
  कितना हो अँधियारा पथ में , फिर भी आस जगती है।
  कितना हो अवगुण दुर्गुण , फिर भी  प्रेम  पिलाती है।
  कहने को  बस माँ है , जीवन पुण्य लुटाती है।
  आंच आये अपनों पर गर , सीता , सावित्री  बन जाती है।
  माँ ,बहन , बेटी बन भगिनी , हर रूप का तेरे गान मै गाँऊ।
  हे जननी हे जग के मूल , कैसे तेरा मान बचाऊ।
  हे माँ भर ले आँचल में , अब तेरे बिन मै रह ना पाऊ।
  सदा मै  चाहू शीतलता , बस तेरे आँचल की छांवों का।
  मांगू ईश्वर से  बस अब , सेवा तेरी चाहों का।  
सुनील
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