मंगलवार, 12 मई 2015

कहर..............

    1. रह रहकर टूटता रब का कहर
      खंडहरों में तब्दील होते शहर
      सिहर उठता है बदन
      देख आतंक की लहर
      आघात से पहली उबरे नहीं
      तभी होता प्रहार ठहर ठहर

      कैसी उसकी लीला है
      ये कैसा उमड़ा प्रकति का क्रोध
      विनाश लीला कर
      क्यों झुंझलाकर करे प्रकट रोष

      अपराधी जब अपराध करे
      सजा फिर उसकी सबको क्यों मिले
      पापी बैठे दरबारों में
      जनमानष को पीड़ा का इनाम मिले

      हुआ अत्याचार अविरल
      इस जगत जननी पर पहर – पहर
      कितना सहती, रखती संयम
      आवरण पर निश दिन पड़ता जहर

      हुई जो प्रकति संग छेड़छाड़
      उसका पुरस्कार हमको पाना होगा
      लेकर सीख आपदाओ से
      अब तो दुनिया को संभल जाना होगा

      कर क्षमायाचना धरा से
      पश्चाताप की उठानी होगी लहर
      शायद कर सके हर्षित
      जगपालक को, रोक सके जो वो कहर

      बहुत हो चुकी अब तबाही
      बहुत उजड़े घरबार,शहर
      कुछ तो करम करो ऐ ईश
      अब न ढहाओ तुम कहर !!
      अब न ढहाओ तुम कहर !!
      !
      !
      !
      धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ…..!!!!

      Share Button
      Read Complete Poem/Kavya Here कहर..............

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें