
  मेरा जो भी दुख था
  या जिसे कहते हैं सुख
  एक पोटली बना कर बांध दी है
  उस सामने वाले पहाड़ की चोटी में।
  हां वही पहाड़ जो रहता है हमेशा हरा भरा
  निरपेक्ष भाव से खड़ा है वहीं के वहीं
  उसी पहाड़ पर है खड़ा एक घना वट बिरिछ
  जिसमें बांध आया करते हैं गांव के लोग
  अपनी अपनी मन की गांठें
  मन्नतें सारी
  गोया सब पूरी ही होंगी
  गोया सचमुच पूरी होने पर वापस
  वे आएंगे ही लौटकर खोलने अपने अपने धागे।
  धागा मेरा हो या आपका
  गठरी मेरी हो या उनकी
  पहचान ज़रा मुश्किल है
  तभी खोलते वक्त गंाठ खुल जाती हैं किसी और की
  मन भारी भारी सा लगता है
  जो मेरा नहीं था
  वो भी खोल आए हम।
  जब मैंने बांध ही दी है अपनी गठरी उस पहाड़ पर टगे बिरिछ पर
  फिर मैं सो सकता हूं निश्चिंत
  लेकिन एक डर है
  जो कहना चाहता हूं आपसे
  कहीं मेरी गठरी किसी और के हाथ लगी तो
  बहुत परेशान होगा जो भी होगा,
  मेरे दुख-सुख कुछ अजीब से हैं
  रात बिरात उठ जाता हूं
  चलने लगता हूं नींद में
  बनने लगती है कोई कविता,
  नहीं बनती तो रात यूं ही कट जाती है
  ख़ामख़ा बेचारे को रात काटनी पड़ेगी आंखों में।
  परेशान तो वह तब भी होगा
  जब मेरी पोटली से निकलेगा
  बेरोजगारी कै दौर की बेचैनी
  खाली पाॅकेट के ख़ाब
  और करना उसका इंतजार
  सड़क के उस पास बस स्टाॅड पर
  भर भर दुपहरिया।
  अब वो पोटली मेरी कहां रही
  जब मैंने टांगी थी उसे
  तभी किसी ने टोका था,
  लगा दो गांठ कस कर
  कोई और न खोल जाए
  लगा दो निशानी कुछ अपनी
  मेरा दुख-मेरा सुख सिर्फ मेरा ही कहां था
  मैंने छोड़ दी अपनी पोटली
  बिना निशान
  यदि आप खोल
  घर ले जाए तो
  माॅफ कर देना
  यदि नींद न आए
  रात रात भर छत पर डोलते
  कई पंक्ति करने लगे परेशान तो। 
बुधवार, 13 मई 2015
पोटली बांध दी है पहाड़ की चोटी में
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