मंगलवार, 12 मई 2015

अगर तुम्हारा साथ होता

भूमिका : दोस्तों यह कविता एक अलग सी कोशिश हैं जिसमें एक आदमी फरिस्ते के द्वारा अपने स्वर्गवासी पत्नी को पैगाम देता है | वो अपना हाल ऐ दिल बयां करता हैं, अपना प्यार जताता हैं,उससे विरह का दुःख वयक्त करता है और अपने बच्चों के बारे में बताता हैं जो अब बड़े हो चुके हैं , आशा हैं आप सबको ये पसंद आएगी…

रुख हवाओं का मोड़ देते अगर तुम्हारा साथ होता
टुटा हर ख्वाब जोड़ देते अगर तुम्हारा साथ होता।

तुम चली गयी मेरी जिंदगी से पर तेरा एहसास बाकी हैं.
जख़्म भर गया मेरे दिल का पर एक सुराख़ बाक़ी हैं।

आ जाओ लौट कर तुम हैं दिल को तेरा इंतज़ार
पतझड़ के गुज़र जाने पर क्या आती नहीं हैं बहार।

तुम थी तो अमूमन तुमसे मिलने के बहाने ढूंढता था
अब तुम नहीं हो तो मशरूफियत के बहाने ढूंढ़ता हूँ।

तेरे जाने का ये आलम हैं कि दिल में सिर्फ तन्हाई हैं
मेरे यादों के किसी कोने मैं आज भी तेरी ही परछाई हैं।

तब तेरे आखों की गहराई में मैं चाँद-तारे ढूँढता था
अब खुली आसमा के नीचे बिखरे सितारे ढूँढता हूँ।

आ जाता तेरे पीछे यक़ीनन पर कुछ काम अभी बाक़ी हैं
शायद मेरे इस तन्हा जीवन में कुछ शाम अभी बाक़ी हैं।

पर तुम कहना तो जरा कि तेरा रूह कहाँ हैं
क्या सितारों के आगे भी कोई और जहाँ हैं।

क्या वहाँ पर भी कोईं मजहबी दिवार होता हैं
हैं वहाँ भी फैला नफरत, या सिर्फ प्यार होता हैं।

हैं चिराग़ तेरे रौशन और सदा रौशन ही रहेंगे
जो सजाई थी तुमने बगिया हरपल ही महकेंगे।

अपनी नन्ही परी की आँखों में तेरा अक्स दिखता हैं
अपने राजू पर हो तुझे नाज़ अब वो शख़्स दिखता हैं।

ओ जाते हुए फ़रिश्ते सुन जरा मेरा ये पैगाम लेता जा
जो दे सुकूँ उसके दिल को कोई ऐसा निशान लेता जा।

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here अगर तुम्हारा साथ होता

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें