मंगलवार, 26 मई 2015

साँझ

तन पे तरुणाई नहीं बचपन की,
मन में है साँझ लड़कपन की,
दर्द उठा है घुटनों में,
ढाल आई उम्र है पचपन की।
आँखों में सपने कई हैं पर,
मोतियाबिंद की झाई है,
पाँवों में हिम्मत खूब मगर,
घुटनों में जम रही काई है।
ये जीवन की संध्या है,
साँझ हठीली घिर आई है,
खुद ही संभालो जीवन को,
शेष बची जो तरुणाई है।

Manoj Charan “Kumar”
Mo. 9414582964

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