मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

सौतेली माँ ( कविता)

सौतेली माँ (कविता )
मेरी पीर ना जाने कोई ….

माँ तो बस माँ ही होती है ,
क्या सगी ,क्या सौतेली .
मगर यह समझता है कौन ,
वोह है एक अनबुझ पहेली .

कैसा है यह आधुनिक समाज ,
बदला है बेशक रहने का सलीका .
मगर विचारों से ना बदला समाज,
है वही संकुचित सोच ,वही तरिका .

माँ ही तो होती हैवोह भी ,
जो प्रतिपल संतान की फ़िक्र करती है,
त्याग ,तपस्या की मूर्ति बन ,
जो बस संतान के लिए जीती है .

लेकिन उसके प्रेम और बलिदान को ,
जग में समझता है कौन ?
काँटों का ताज पहनकर सर पर ,
अंगारों पर चलती है रहकर ,मौन .

वोह पुरे करती है अपने सारे फ़र्ज़ ,
और उठाती है ज़िम्मेवारियों का बोझ .
मगर इसके बदले पाती है उपेक्षा ,अपमान ,
और समझी जाती है स्वजनों पर बोझ .

क्रोध और नाराज़गी को बयान करे कैसे ,
यदि करे तो बदनाम हो जाये .
”ऐसी ही होती है सौतेली माँ ” ताना वोह सुने ,
उसे सारा समाज कटाक्ष सुनाये .

उसकी डांट -फटकार ,नाराज़गी के परोक्ष में ,
छुपी होती है सगी माँ सी ही संतान के लिए भलाई .
जन्म नहीं दिया अपने गर्भ से तो क्या ,
संतान के दिल से तार से तार तो है उसने मिलायी .

उसके अरमानो और सपनो का ,
केंद्र -बिंदु होती है उसकी संतान .
हर माँ की तरह अपनी ख़ुशी ,और प्यार ,
उनपर लुटाना चाहती है यह माँ .

सौतेली माँ जितनी भी हो सुशील ,
संस्कारी ,सुशिक्षित और गुणवान .
मगर है तो वोह कोल्हू बैल , निर्गुणी ,
और सबके लिए प्राणी एक अनजान .

हां प्रभु ! हां प्रभु ! कैसा लिखा तूने भाग्य ,
सौतेली माँ का तमगा पहनाया , नहीं दिया सौभाग्य .
कान्हा जैसी सन्तान देकर काश तुमने ,
प्रदान किया होता माता यशोदा जैसा सौभाग्य .

कान्हा ने किया कभी अंतर,
निज माँ में और यशोदा माँ में .
दिया सामान रूप से दोनों को ही ,
प्यार और सम्मान ,और बसाया अपने दिल में ,

है जग में जैसे मिसाल कान्हा -यशोदा का प्यार ,
के देवकी से अधिक कान्हा ,यशोदा का लाल कहलाये.
दबना दो मेरी संतान को भी ऐसा कान्हा जैसा ,
जो मेरी भावना ,त्याग और प्रेम का मोल कराये .

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