सौतेली माँ   (कविता )
                                     मेरी  पीर ना  जाने  कोई ….
                                 माँ तो बस माँ ही होती है ,
                                   क्या सगी ,क्या सौतेली .
                                   मगर यह समझता  है कौन ,
                                   वोह है एक अनबुझ पहेली . 
                                 कैसा  है यह आधुनिक समाज ,
                                   बदला  है  बेशक रहने का  सलीका .
                                   मगर  विचारों  से  ना बदला समाज,
                                   है वही  संकुचित  सोच  ,वही तरिका .
                                माँ ही तो  होती हैवोह भी ,
                                  जो  प्रतिपल  संतान की फ़िक्र करती है,
                                  त्याग ,तपस्या की  मूर्ति बन ,
                                  जो  बस  संतान के लिए जीती  है .
                                लेकिन   उसके  प्रेम और  बलिदान को ,
                                  जग में  समझता है कौन ?
                                  काँटों का ताज पहनकर सर पर ,
                                 अंगारों पर चलती है रहकर ,मौन . 
                               वोह पुरे करती है अपने  सारे फ़र्ज़ ,
                                और  उठाती  है ज़िम्मेवारियों  का  बोझ .
                                मगर इसके बदले  पाती  है  उपेक्षा ,अपमान ,
                                और  समझी  जाती  है  स्वजनों पर बोझ .
                               क्रोध और नाराज़गी को बयान करे कैसे ,
                                 यदि  करे तो  बदनाम हो  जाये .
                              ”ऐसी  ही होती है सौतेली माँ ”  ताना  वोह सुने ,
                                उसे सारा  समाज  कटाक्ष सुनाये . 
                              उसकी डांट -फटकार ,नाराज़गी के परोक्ष में ,
                                छुपी  होती है सगी माँ  सी ही संतान के लिए भलाई .
                                जन्म   नहीं दिया  अपने गर्भ  से तो क्या ,
                               संतान  के  दिल से  तार  से  तार तो है उसने मिलायी . 
                             उसके  अरमानो   और  सपनो  का   ,
                               केंद्र -बिंदु  होती  है  उसकी  संतान .
                               हर माँ  की तरह  अपनी  ख़ुशी ,और  प्यार ,
                               उनपर लुटाना  चाहती है  यह  माँ .
                              सौतेली माँ जितनी भी हो  सुशील  ,
                               संस्कारी ,सुशिक्षित और  गुणवान .
                               मगर है तो वोह  कोल्हू  बैल , निर्गुणी ,
                              और  सबके लिए प्राणी एक अनजान .
                            हां   प्रभु  ! हां  प्रभु  ! कैसा लिखा  तूने भाग्य ,
                             सौतेली  माँ  का तमगा पहनाया , नहीं दिया सौभाग्य .
                             कान्हा  जैसी सन्तान देकर काश तुमने  ,
                             प्रदान किया होता माता यशोदा  जैसा सौभाग्य .
                            कान्हा  ने किया कभी अंतर,
                             निज माँ में और यशोदा माँ में .
                             दिया  सामान रूप से  दोनों को ही ,
                             प्यार और सम्मान ,और बसाया अपने दिल में ,
                           है जग में  जैसे मिसाल कान्हा -यशोदा का प्यार ,
                            के  देवकी से अधिक कान्हा ,यशोदा  का लाल कहलाये.
                            दबना  दो मेरी संतान को भी ऐसा कान्हा जैसा  ,
                            जो  मेरी भावना ,त्याग और प्रेम का मोल कराये  . 

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