रोज देखता हूँ चाँद को पिघलते थोड़ा थोड़ा
  लम्बी रातों के बाद धूप की वो बूँदें बटोरता हूँ मैं
उस रात सर्दियों में पटाखे छुटे थे कई निराले
  उन अंगारों में बचे फूल की माला पिरोता हूँ मैं
प्यार की गर्मी कम न हो समय की बौछार से कहीं
  ठिठुरती रातों में आंहों की चादर बुनता हूँ मैं
रिश्तों के गिलाफ को बींध देती है खामोशियां भी अक्सर
  नफरत को जो बांधे प्यार से वो मजबूत धागा ढूँढता हूँ मैं

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें