मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

"निर्भया " की चीखें,,,,

वर्तमान समय में हम इतने व्यस्त हो गए है कि समाज में घटित होने वाली घटनाएं सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ शुरू होती है चाय खत्म होते -होते हमारे ज़ेहन से निकल जाती है ,,हमारे पास इतना वक्त नहीं है कि हम उनका विश्लेषण कर सके ,उसकी वजह जान सके ,और उसका समाधान निकाल सके ,,क्योंकि हम व्यस्त है ….. पूरे तीन वर्ष व्यतीत हो गए किन्तु “निर्भया “की चीखों में कोई परिवर्तन नहीं आया ,आज भी वह उतनी ही तीव्रता के साथ समाज पर प्रहार करती हुई सुनाई दे रही है ,,इन तीन वर्षों में हर पल, हर दिन,एक नई
” निर्भया” ने हमारे समाज में जन्म लिया और हमे इस बात से परिचित करा दिया कि हममे अब मानवता का लेशमात्र भी शेष नहीं बचा ,हमने पूरी तरह से पशुता को अपना लिया है ,हम पशुओं जैसे हो गए है और पशुओं से रहित समाज का निर्माण् भी कर रहे है ,,,हमने ईश्वर से बड़े हो जाने की ठान ली है ,ईश्वर ने मनुष्य की रचना कर एहसास दिलाया की वो भगवान है और इतनी अद् भुत सर्जना का सृजनकर्ता सिर्फ वही हो सकता है और आज हमने ईश्वर द्वारा रचित इस सुन्दर रचना को पशुता का आवरण पहनाकर ईश्वर को चुनौती दे दी है ..हम मनुष्य और मानवता की परिभाषा ही भूल चुके है ,अपनी संकीर्ण मानसिकता को इतना प्रभावी बना लिया है की हमे यह दिखाई नहीं दे रहा है कि इसका परिणाम कितना भायानक होगा ,,,किसी भी समय “निर्भया” का जन्म हमारे घर में भी हो सकता है ,,इस बात का ख्याल आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते है किन्तु जब पूरा समाज ही इस पशुविक मानसिकता को धारण कर चुका है तो ऐसे में हम एक नई “निर्भया” को जन्म लेने से कैसे रोके ? …इसका एकमात्र उपाय सिर्फ यही है कि हम उन संकीर्ण मानसिकताओं का त्याग करे जो मनुष्य होते हुए भी हमे पशुओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर रही है ,.समाज में शिक्षा के स्तर को ऊँचा करें ,,,,,जो संस्कार आजतक हम अपने समाज की बेटियों में विकसित करने की बात करते रहे है उन संस्कारों को आज बेटों में भी विकसित करने की आवश्यकता है ,,जो नियम हम समाज की बेटियों के लिए निर्मित करते है वही नियम बेटों पर भी लागू होना चाहिए …हमे हमारी इस मानसिकता का भी त्याग करना होगा कि सिर्फ बेटियाँ ही घर की ,कुल की और समाज की इज़्ज़त होती है बल्कि बेटा -बेटी दोनों का ही दायित्व बराबर होता है ,,,गलत कार्य की परिभाषा और दंड दोनों के लिए समान होना चाहिए ,,,,”संस्कारों की, नियमों की जब ऐसी संरचना समाज में विकसित होगी तो निश्चित ही हम समाज की सांस्कारिक और स्वस्थ पराकाष्ठा को देख सकेंगे “और तब कही जाकर ईश्वर की इस अद्वितीय कृति का सार्थक रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत होगा ,,,और उस दिन” मानवता की पशुता पर एक बार फिर से विजय होगी “और फिर कभी हमारे समाज में किसी “निर्भया ” का जन्म नहीं होगा ,कभी नहीं होगा… और हमारा समाज परिष्कृत तथा परिमार्जित हो उठेगा ……..सीमा “अपराजिता “…..

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