रविवार, 27 दिसंबर 2015

संतोष

कविता तो मैं बहुत सुना चुकी,
अब मैं अपनी कुछ कहानियां,
कविता की जुबानी सुनाती हूँ ,
आप सोच रहे होंगे ,
कि मंच है काव्य का ,
और मैं कहानी गढ़ रही हूँ ,
तो भाई किस्से कहानियां भी तो ,
हमारे जीवन से ही निकलतीं हैं ,
और कविता भी रेल की पटरी,
की तरह समांतर ही चलती है।

संतोष नाम की एक चिड़िया थी ,
जो बहुत मात्रा में हमारे ,
घरो में पाई जाती थी ,
आज भी कुछ बिरला के ,
मन के पिंजरे में ,
बंद मिल जाती हैं ,
जैसे कुछ लोग एंटीक चीजें,
संभाल कर रखतें हैं ,
वैसे ही कुछ लोग ने सतोष को भी ,
संजो कर रखा है।

हाँ तो मैं अब पुराने ज़माने यानि ,
अपने बचपन की बात बताती हूँ ,
हम भाई बहन जब पास होते थे ,
तो हमारे पापा ढेर सारी मिठाइयाँ ,
ले आते थे और मम्मी भी ख़ुशी ख़ुशी ,
भगवान को प्रशाद चढ़ा कर हम सभी में ,
बाँट दिया करती थीं, हम भी तब ,
बिना कैलोरी की परवाह किये हुए ,
ढेरों मिठाइयाँ हजम कर जाते थे,
और कुछ मिठाई अपने पॉकेट में रख कर ,
ख़ुशी ख़ुशी मोहल्ले में अपने पास होने की खबर ,
सुनाने निकल पड़ते थे ,
तब किसी को नंबर या परतौलतेँ सेंट की परवाह नहीं थी ,
सभी को इसी बात से संतोष था,
कि हम पास हो गए हैं।

आज जब मैं अस्सी पच्चासि परसेंट नम्बर आने पर भी ,
बच्चों और उनके माँ बाप के भी मातमी चेहरे देखती हूँ ,
तो अचानक ही मुझे अपना बचपन याद आ जाता है ,
कि आज क्यूँ हम बड़े ,
अपने बच्चों की उपलब्धियों को ,
अपनी मह्त्वकांछाओं से तौलते हैं,
क्यूँ अपने बच्चों का दिल ,
इन छोटी छोटी बातों से ,तोड़ते हैं,
क्यूँ उनके रिजल्ट को अपने ,
टूटे सपनों से जोड़ते हैं।

यह सब इसलिए है ,कि
कि आज सुख तो बहुत हैं ,
पर संतोष नहीं है ,
शायद इसीलिए हम सब सुखी तो हैं ,
पर खुश क्यों नहीं हैं।

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