कविता  तो  मैं  बहुत सुना  चुकी,
  अब मैं  अपनी  कुछ  कहानियां,
  कविता  की  जुबानी  सुनाती  हूँ ,
  आप  सोच  रहे  होंगे ,
  कि  मंच  है  काव्य  का ,
  और  मैं  कहानी  गढ़ रही हूँ ,
  तो भाई  किस्से  कहानियां भी  तो ,
  हमारे  जीवन  से ही निकलतीं  हैं ,
  और  कविता  भी  रेल  की पटरी,
   की  तरह समांतर  ही  चलती  है। 
संतोष नाम की  एक  चिड़िया थी ,
  जो  बहुत  मात्रा  में  हमारे ,
   घरो में पाई  जाती थी ,
  आज  भी  कुछ  बिरला  के ,
  मन  के  पिंजरे  में ,
  बंद  मिल  जाती  हैं ,
  जैसे  कुछ  लोग  एंटीक चीजें,
  संभाल  कर रखतें  हैं ,
  वैसे ही कुछ  लोग ने सतोष को भी ,
  संजो  कर रखा  है।
हाँ  तो  मैं  अब  पुराने  ज़माने यानि ,
  अपने  बचपन  की  बात बताती  हूँ ,
  हम  भाई  बहन  जब  पास  होते थे ,
  तो  हमारे  पापा  ढेर  सारी  मिठाइयाँ ,
  ले  आते  थे  और  मम्मी  भी  ख़ुशी  ख़ुशी ,
  भगवान  को  प्रशाद चढ़ा  कर  हम  सभी  में ,
  बाँट  दिया  करती  थीं, हम  भी  तब ,
  बिना  कैलोरी  की  परवाह  किये  हुए ,
  ढेरों  मिठाइयाँ हजम  कर  जाते  थे,
  और  कुछ मिठाई   अपने पॉकेट  में  रख  कर ,
  ख़ुशी ख़ुशी  मोहल्ले  में  अपने  पास  होने  की    खबर  ,
  सुनाने  निकल  पड़ते  थे ,
  तब  किसी  को  नंबर  या  परतौलतेँ सेंट  की परवाह  नहीं  थी ,
  सभी  को  इसी  बात  से  संतोष  था,
  कि  हम  पास  हो  गए  हैं।
आज  जब मैं  अस्सी  पच्चासि परसेंट  नम्बर  आने  पर  भी ,
  बच्चों  और  उनके  माँ  बाप  के भी  मातमी  चेहरे  देखती  हूँ ,
  तो  अचानक  ही   मुझे  अपना  बचपन  याद आ  जाता  है ,
  कि  आज  क्यूँ  हम  बड़े  ,
  अपने   बच्चों  की  उपलब्धियों  को ,
  अपनी मह्त्वकांछाओं से तौलते  हैं,
  क्यूँ  अपने  बच्चों  का  दिल  ,
  इन  छोटी छोटी  बातों  से ,तोड़ते  हैं,
  क्यूँ  उनके  रिजल्ट  को  अपने ,
  टूटे  सपनों  से  जोड़ते  हैं। 
यह  सब  इसलिए  है ,कि
  कि  आज सुख तो  बहुत  हैं ,
  पर  संतोष  नहीं  है ,
  शायद  इसीलिए  हम  सब  सुखी  तो  हैं ,
  पर  खुश  क्यों  नहीं  हैं। 

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