मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

कोई मंदिर बनाने चला है, कोई मस्जिद बनाने चला है !
करके इंसानियत को खाकसार आज देखो इंसान चला है !!

सरोकार नही जिसका कोई जहां में ख़ुदा के नाम से
मजहब के नाम पर करने वो आज व्यापार चला हैं !!

इल्म से है बेखबर, हुआ बेगैरत अपने ही जहन से
बिछाकर अपनों की लाश बनने वो सरताज चला है !!

क्या खूब रच रहे इतिहास आज का युगप्रवर्तक
मिटा के पुराने निशां नया जहान बसाने चला है !!

खबर किसे आज यंहा, कौन अपना कौन पराया
तोड़कर बंधन हम का, मै का अलख जगाने चला है

रहा बेखबर जो अपने ही आशियाने के हालातो से
आज दुनिया को ख़ुदा से मिलाने रहगुजर चला है !!

कैसे कर सकेगा “धर्म” माफ़ ख़ुदा उन नर पिशाचों को
जो बेचकर ईमान अपना खुद की पहचान बनाने चला है !!

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—::—- डी. के. निवातियाँ —::—-

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