बचपन  में  बोया  था सिक्के  का  पेड़ ,
  काफी  दिनों  तक,
   बहुत जतन से ,
   खाद  पानी  डाल  कर ,
  उसकी देखभाल , रहे ,
  मगर  जब  उसमे  से ,
  कोई  पौधा  नही  निकला ,
  तो  बहुत  निराश  भी  हुए  थे। 
मगर  कुछ  दिनों  बाद ,
  मेरी  बाउंड्री के  जस्ट बाहर,
  बगल  वाले  घर  में  जब ,
  मनीप्लांट  का  पौधा ,
  लगा  हुआ  देखा  तो लगा ,
  तो  लगा  कि  मेरा  ही   मनी ,
  अंदर अंदर  जड़ पकड़  कर।
  पड़ोस  के  घर  में ,
  प्लांट  बन  गया  है। 
फिर  क्या  था ?
  हमारी  निराशा  ,
  आशा  में बदल  गई ,
  और  हम  फिर  चुपके चुपके,
  उस  मनीप्लांट  के  पौधे  को ,
  खाद  पानी  देने  लगे ,
  और मेरी  ख़ुशी  की ,
  तब  सीमा  न  रही ,
  जब  वही मनीप्लांट का पौधा ,
   पड़ोसी  की  दीवाल फाँद कर ,
  हमारी  दीवाल  पर  चढ़  आया  था। 
 फिर हम  उस  मनीप्लांट के पौधे  पर ,
  सिक्के  निकलने का ,
  कुछ  और  समय तक इंतज़ार करते रहे ,
  मगर  जब  काफी  इंतज़ार  के  बाद  भी ,
  जब  उस  पौधे  में  से  कुछ  भी  नही  निकला ,
  तो  इस  बार  हम  निराश  नहीं  थे ,
  क्युंकि हम  समझदार  हो  गए  थे ,
  अब  हमे  पता था ,कि  पैसे
  पेड़ों  पर  नहीं  लगतें  हैं। 
ना जाने  वोह  हमारी  मूर्खता  थी ,
  भोलापन  था या ,
    हमारे बचपन  का  बचपना ,
  मगर  हमारे  ज़माने  में ,
  हमारी उम्र के  बच्चे ,
  लगभग  ऐसी  ही ,
   उल्टी  सीधी  हरकतें ,
  काफी किया  करतें  थें। 
अब  क्या  बताऊँ ?
  कि  उन  दिनों  उस ,
  मनीप्लांट  के  पेड़  पर ,
  उगते  हुए  चंद  सिक्कों को ,
  देखने के इंतज़ार  में ,
   जो  आनंद  था,
  वोह  आज  ढेरों  पैसे  के  बाद  भी ,
  क्यूँ नहीं  है ?
ना  ही  आजकल  के बच्चे ,
  हमारी  तरह  मुर्ख  ही  है ,
  उन्हें  आज  छुटपन  से  ही  पता  है ,
  कि  पैसे  पेड़ों  से  नही  ,
  ऐ.टी.एम. से  निकलतें  हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें