शनिवार, 19 दिसंबर 2015

बचपन का बचपना

बचपन में बोया था सिक्के का पेड़ ,
काफी दिनों तक,
बहुत जतन से ,
खाद पानी डाल कर ,
उसकी देखभाल , रहे ,
मगर जब उसमे से ,
कोई पौधा नही निकला ,
तो बहुत निराश भी हुए थे।

मगर कुछ दिनों बाद ,
मेरी बाउंड्री के जस्ट बाहर,
बगल वाले घर में जब ,
मनीप्लांट का पौधा ,
लगा हुआ देखा तो लगा ,
तो लगा कि मेरा ही मनी ,
अंदर अंदर जड़ पकड़ कर।
पड़ोस के घर में ,
प्लांट बन गया है।

फिर क्या था ?
हमारी निराशा ,
आशा में बदल गई ,
और हम फिर चुपके चुपके,
उस मनीप्लांट के पौधे को ,
खाद पानी देने लगे ,
और मेरी ख़ुशी की ,
तब सीमा न रही ,
जब वही मनीप्लांट का पौधा ,
पड़ोसी की दीवाल फाँद कर ,
हमारी दीवाल पर चढ़ आया था।

फिर हम उस मनीप्लांट के पौधे पर ,
सिक्के निकलने का ,
कुछ और समय तक इंतज़ार करते रहे ,
मगर जब काफी इंतज़ार के बाद भी ,
जब उस पौधे में से कुछ भी नही निकला ,
तो इस बार हम निराश नहीं थे ,
क्युंकि हम समझदार हो गए थे ,
अब हमे पता था ,कि पैसे
पेड़ों पर नहीं लगतें हैं।

ना जाने वोह हमारी मूर्खता थी ,
भोलापन था या ,
हमारे बचपन का बचपना ,
मगर हमारे ज़माने में ,
हमारी उम्र के बच्चे ,
लगभग ऐसी ही ,
उल्टी सीधी हरकतें ,
काफी किया करतें थें।

अब क्या बताऊँ ?
कि उन दिनों उस ,
मनीप्लांट के पेड़ पर ,
उगते हुए चंद सिक्कों को ,
देखने के इंतज़ार में ,
जो आनंद था,
वोह आज ढेरों पैसे के बाद भी ,
क्यूँ नहीं है ?

ना ही आजकल के बच्चे ,
हमारी तरह मुर्ख ही है ,
उन्हें आज छुटपन से ही पता है ,
कि पैसे पेड़ों से नही ,
ऐ.टी.एम. से निकलतें हैं।

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here बचपन का बचपना

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें