गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

गर ये मजबूरी ना होती by Alok upadhyay

गर ये मजबूरी ना होती

महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
इन झोपड़ियों में ना रहते
चूसते खून आवाम का
हर रोज़ पेट भरकर
ईमानदारी का जामा पहन
किसी को कुछ ना कहते
माना की ये जमीं का टुकड़ा
हमारा नहीं
लोगों ने खरीदा है कानून तक
क्या ये नाइंसाफी की ओर
इशारा नहीं
साहब
कभी महलों की दिवारों पर
तो बुलडोजर चलाओ
कभी नेताओं, भ्रष्टाचारियों के
की भी लाईन में लगाओ
हमें नहीं है मखमल पे सोने
की आदत
अलाव के पास ही रात
कट जायेगी
कभी अमीरों को भी निकालो
घरों से बाहर ठंड में
आपकी सियासी कुर्सी
तक हिल जायेगी
साहब!..!
हम पर बीती है रात भर
तो हर किसी को
अपना दुखड़ा सुनायेंगे
पता है बदनसीब हैं हम
ये सारे नेता
हमारी जलती आत्मा पर
राजनिति की रोटी सेक
चले जायेंगे
किसी गरीब को आँसुओं
में बहते हुए देखना
दिल फट जायेगा तुम्हारा
कभी अपने मकां को ढहते
हुए देखना
हम तो ऐसे ही जिते आये
आसमाँ के नीचे पका लेंगे अपनी रोटी
महलों में होते
गर ये मजबूरी ना होती
by
ALOK UPADHYAY

Alok upadhyay poet

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