शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

ग़ज़ल।यहा हमआम का डर है ।

ग़ज़ल।यहा हमआम का डर है।

तुम्हारे दर्द तन्हा ग़म ख़फ़ा बदनाम का डर है ।।
मिलेगा प्यार के बदले जफ़ा अंजाम का डर है ।

अभी मासूम हो काफ़ी हिदायत पर नही दूँगा ।
मसलन फ़र्ज़ समझो या कोई पैगाम का डर है ।।

चली जा सोचकर आना न आना तो ही अच्छा है ।
मुहब्बत करके देखा मैं हुआ नाक़ाम का डर है ।

भरोसा क्या करूँ तुम पर भरोसा तोड़ ही दोगे ।
यक़ीनन तुम लगा दोगे दिले इल्जाम का डर है ।।

नजर ही गाड़ देगे सब जरा कर दी सरारत तो ।
मुहब्ब्त है तो होगी ही सुबह से शाम का डर है ।।

करू मैं लाख़ कोशिस तब दुनिया ये न मानेगी ।
जहर सा पी न पाउँगा सजे उस जाम का डर है।।

साहिल पर न आ “रकमिश” यहा रिश्ते बिखरते है ।
वहा गैरो से डर तुमको यहा हमआम का डर है ।।

@रकमिश सुल्तानपुरी

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