हम भटकते ही रहे अन्धेरों की गुफाओ में,
  यहाँ नहीं पहुँच पाई, उजालें की किरण चाह कर भी l
  या शायद हम ने नहीं देखना चाहा उजाला l
  हम डरते ही रहे, कि कही चुधिया न जाए हमारी आँखे l
  इस लिए हम ने लालच को हावी होने दिया खुद पर,
  और विकने दिया अपना ईमान l 
ग़र हमें प्रबेश करना है नई सदी में,
  तो दफ़न करना होगा लोभ को इसी गुफ़ा में,
  और करना होगा एक सुराख़ l
  ताकि भुलाया जा सके अतीत के काले अँधेरे को,
  और जगमगाया जा सके हमारे आज को,
  क्यों कि इसी से वाव्स्था है हमारा आने बाला कल l   
ग़र नहीं हुआ सुराख़ तो कल काल बन जाएगा l
  यह मगरमच्छ हमें जिन्दा निगल जाएगा l
  हमें बनना है जुगनू और छोड़नी है छाप l
  सिर्फ नेकी और ईमान से बनेगी अपनी बात l
  आओ लोभ के बादल को दूर करने का यत्तन करें l
  और अंधेरों से कोसों दूर मुठी भर धूप तले,
  खिले खिले उज्जवल समाज का गठन करे ll  
संजीव कालिया
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