दावात की शीशी से झाँक रही है सूखी हुयी स्याही..
  पूछती है, क्यों नाराज़ हो क्या?
उधर मेज़ पर औंधें मुंह पड़ा है मेरा पुराना कलम..
  मानो खिसिया के कह रहा हो..
  “देख लूँगा”…
फिर एकाएक कर बोला..
  मियाँ, क्या लिख रहे हो?
  ये जो तुम टक-टक करते रहते हो फ़ोन-आई-पैड पर,
  उसे ‘लिखना’ नहीं, ‘टाइपिंग’ कहते हैं…
तुम्हारी कविताओं में अब वो बात नहीं,
  सिर्फ शब्दों का धुंआ है, कला की भभकती आग नहीं…
तुम्हारे लफ्ज़ अब पन्नों पर नाचना भूल गए हैं…
  तुम्हारी कविता मुझसे आँख-मिचोली खेलते-खेलते खो गयी है…
लगता है भूल गए वो रात-रात भर जागकर,
   कागज़ों पर लिखना-मिटाना और फिर लिखना…
  एक के बाद एक पन्नों पर कलम से लफ़्ज़ों की बौछार करना…
पर मैं तुमसे क्या शिकवा-शिकायत करूँ,
  तुम तो प्यार का इज़हार भी वॉट्सऐप पर करते हो…
  और देशभक्ति भी सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पे जताते हो….

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