-: मेरी ज़िंदगी :-
थक चुका हूँ मैं,
  ज़िंदगी के पन्नों को समेटते-2!
  और ये ज़िंदगी है, के
  हर पल,एक नया अध्याय लिखती जा रही है!!
कहता कोई- मेरी है,
  कोई कहता, इसे बेवफा !
  पता नही, ये ज़िंदगी मुझसे,
  कौन-सा रिस्ता निभा रही है !!
  कभी तो ये हर प्यास मेरी बुझती है,
  और कभी ये समंदर भी कम लगता है !
  खेल रही है मुझे, या ये
  सीखा रही है, मुझको जीना !
  क्या समझु? समझ नही आता,
  कभी करती,अकेला ,तन्हा मुझको
  तो कभी, महफिल सज़ा रही है !!
रातों को है ये शय: काली रातें,
  दिन के उजालों मे भी अक्सर,
  ये डरा मुझे है जाती !
  कहता नही ह्रदय, बस रोता है,
  बंजारेपन मे बस, अब ये ही होता है!!
  खुद को संभालू, या,
  संभालू इस चंचल मन को !
  न जाने कौन सी है, वो चिंगारी
  मेरे मन मे, छिपे मन मे "सहगम"
  बुझती नही,जलती ही जा रही है
( लेखक :- सोनू सहगम )
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