यकीन नहीं है खुद पे टूट चूका हूँ,
  लेकिन  हा,इतना जरूर कहूँगा,
  इतना यकीन है खुद की सोच पे कि,
  इस कदर बना लूंगा खुद को,
  आपकी जुबान कहे एक दिन की,
  काश उस इंसान के साथ होते या वो इंसान हमारा होता’ !
  इस काबिल नहीं है अभी के कुछ बता सके,
  लब्ज नही है कुछ भी आज पास मेरे,
  सुनसान डगर है भरम मय रास्ता है,
  बस अँधेरे में चलते जा रहा हूँ,
  मिलेगी मंजिल कभी तो,
  यही सोच के चलता जा रहा हूँ,
  थक गया हूँ थोड़ा सोच से,
  लेकिन सोच ही ऐसी है जो वैसे थकने नही देती,
  चलता रहता हूँ यही सोच सोच के,
  सोच ही लिया है के चलते जाना है,
  अपना रहा हु अपनत्व को,
  छोड़ रहा हूँ जो रास नही,
  वो छोड़ रहे है मुझे ये समझ कर,
  की ये कोई खास नही,
  ऐसे ही कुछ रिश्ते है,
  सुना है किसी राहगीर से मंजिल अभी बहुत दूर है,
  चलो कोई बात नहीं देखते है मंजिल और कितनी दूर है,
  अकेला हूँ डगर पे तो क्या,
  बहुत से सवालो का बोझ है साथ में,
  जो पतवार को पानी से उलझने नहीं देते,
  और मेरी सोच को निशब्द सुलझने नही देते,
  ऐे छोड़ जाने वाले,
  याद रखना इस काबिल बना लेना खुद को,
  की होसला हो तुझमे याद रखने का उस घाव कर
  जाने वाली शमशीर का,
  दुनिया बदल गई है आज के जमाने की,
  बैठे है मंजिल के रस्ते में लोग ऐसे भी,
  कोई छल लेता है,कोई रोकर कुछ पल लेता है,
  चलो फिर क्या हुआ,राहगीर है कहा इस काबिल अभी,
  कोई कहे अपना समझ कर के उस मंजिल तक हमे भी ले चलो !
शनिवार, 23 जनवरी 2016
'मंजिल'
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