हमारे जन्म पर
  ना ढोल बजे ना थालियां उठी
  ना चेहरे खिले ना तैयारियाँ हुए
  मातम सा एक माहोल छाय था
  जो हमारे बड़ोने
  हमारी शादी तक चलाया था
बचपन की मासूमियत
  और शरारते
  हमने कभी जी ही नहीं
  विदाई के खौफ में
  ज़िन्दगी जैसे जी ही नहीं
पराये घर का खौफ
  पल पल मंडराता
  पूरा बचपन शादी की तैयारियों में ही जाता 
खेल में भी हमारे
  हमे यही याद दिलाया जाता था
  तेरी गुड़िया की शादी है
  तेरी भी बरी आएगी
  गुड़िया का दहेज़ जुटा
  नहीं तो उलटे पैर
  लौटती आएगी
दहेज़ हमारा भी जुटाया जाता
  शादी के बाजार में
  पिता का बूझ पति को टरकाया जाता 
कोई व्यापर ऐसा भी देखा है
  सामान बेचनेवाला सामान का पैसा भी चुकता है
  मनो कह रहे हो
  ले जाओ इस बोझ को
  हमसे अब ये उठाया नहीं जा रहा
  ले जाओ बस
  इसे ले जाने की रकम भी हम चुकाएंगे
  तुम्हारी मांगो के आगे सर अपना झुकायंगे
  ले जाओ बस ले जाओ
ना आना लाडो
  इस घर फिर ना आना
  मरते मर जाना पर सारे ज़ुल्म तुम ही उठाना
ये कैसी व्यवस्था है
  जन्म दायनी औरत की इतनी दैनिय दशा है
  ये कैसी प्रथाओ ने हमे जकड़ा है
  जहाँ आदमी इंसान
  और औरतो बस एक मॉस का टुकड़ा है
  एक बोझ एक बोझ
  जिसने इन इंसानो को जान्ने का दंड सहा है
  बस दंड सहा है 
– सवाली इंसिया
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