गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

थोड़ा और समय (कविता)

सुबह निकलने से पहले ज़रा

बैठ जाता उन बुजुर्गों के पास

पुराने चश्मे से झांकती आँखें

जो तरसती हैं चेहरा देखने को

बस कुछ ही पलों की बात थी 

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लंच किया तूने दोस्तों के संग

कर देता व्हाट्सेप पत्नी को भी

सबको खिलाकर खुद खाया या

लेट हो गयी परसों की ही तरह

कुछ सेकण्ड ही तो लगते तेरे 

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निकलने से पहले ऑफिस से

देख लेता अपने सहकर्मी को

जो संग चलने को कह रहा था

पर एक मेल करने को रुका था

बस कुछ मिनटों की बात थी

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निवाला मुंह में डालने से पहले

सोच लेता अपने भाई को भी

जो अभी अभी घर आया था

और वॉशरूम से आने वाला था

बस कुछ देर की तो बात थी

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बिस्तर पर सोने से पहले ज़रा

खेलता उस मासूम के साथ भी

दोपहर से पापा पापा रटता रहा

अहसास उसका भी तो था कुछ

थोड़ा और समय ही तो लगता 

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– मिथिलेश ‘अनभिज्ञ’

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