शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

मुर्गो की सभा .......!!

कल राह से गुजरते हुए
झुण्ड एक मुर्गो का मिला !
चल रही थी उनकी एक सभा
विषय बड़ा गंभीर मिला !!

एक दुबला सा मुर्गा
उम्र में था वो सबसे बड़ा !
हिलता डुलता था खड़ा
कुछ नन्हे और युवाओ से
चहुँ और से था घिरा हुआ !!

रुआंसा होकर बोल रहा था
बड़ी शिद्दत से समझाता हुआ
देखो मेरे प्यारे बच्चो
अपनी तो वक़्त बीत गया
जब अपना भी भाव था !!

आज हालत बिगड़े है
मानव समाज में सब बिफरे है
काम आता किसी को रास नही
बनकर घूमे रहे सब नबाब
महगाई की मात खाए हुए !!

एक बुजुर्ग को अखबार पढ़ते
चौपाल पर हमने कहते ये सुना है
दाल रोटी भी अभी अब
गरीब के हाथ से निकलते सुना है
इससे तो सस्ता अब मुर्गा हुआ
ये व्यंग कसते हमने उनको सुना हैं
हालात अब खरब है बच्चो
खुद की खैर मनाओ सुना है
दाल रोटी को छोड़ कर अब
रोज मुर्गे की दावत उड़ाओ सुना है !

इसलिए अच्छा है इस दुनिया को
छोड़ कर कही जंगल में निकल जाए
वन्य जीवो की तरह हम भी
अपना एक शक्तिशाली झुण्ड बनाये
कोई उठाये जो अपनी नजर
फिर हम उसको सबक सिखलाये
काम नही है हम किसी से
जान हमे भी कितनी प्यारी बतलाये
हमने भी सीखा है शान से जीना
तोड़ उनका घमंड उनको ये समझाये !

तुमने कब हमारी परवाह की
जब चाहा अपने स्वाद की खतिर
हमारी गर्दन मरोड़ दी !
तुम्हारी दाल से हमे क्या लेना देना
संतान हम भी उस परमात्मा से
फिर क्यों तुमने कहावत हमसे जोड़ दी !!

संभल जाओ ऐ खुद के बन्दों
हम भी उस खुद की सन्तान है
जीते हो तुम जिस शान से
हमको भी जीने का वैसे अधिकार है !!
!
!
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डी. के. निवातियाँ ________@@@

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