कभी मोहब्बत ने  मारा, कभी बेरुखी ने मारा !
  मेरे ही रहनुमाओ ने, हमेशा मुझे बे-मौत मारा  !!
है जिंदगी पे मेरा भी, हक़ मानव तेरे ही जैसा !
  फिर क्यों मुझे दुत्कारा, क्यों नही मेरा आना गंवारा !!
दिया कैसा सिला तुमने मुझे गणिका बना डाला !
  जब मेरे ही रूप ने था, तुझे इस दुनिया में उतारा ! !
कभी महफ़िल में सजाया, कभी कोठो पे उतारा !
  कभी लाज़ ने है मारा, कभी हमे शर्म ने है मारा !!
क्या थी मेरी खता, मेरे मालिक मुझे दे बता !
  क्यों मुझे कोख में मारा, कभी गोद में मारा !! 
मेरा जीवन बनके रह गया तेरे हाथो का खिलौना !
  कभी मंदिरो में बिठाया, कभी मयखाने में उतारा !!
इतनी है तुमसे इल्तिजा “धर्म” जीने का दो सहारा !
  मैंने तेरी हर रज़ा पर था  अपना सारा जीवन हारा !!
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  [——–डी. के. निवातियाँ ——]

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