शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

यादें

चलते चलते थम से गए
पेड़ों की छाँव में
पांव ठिठक कर रह गए
यादों के गाँव में
कदम भी मद्धम हो गए
रफ़्तार अपनी छोड़ कर
इक इक नज़ारा याद आया
बढ़ते हुए हर मोड़ पर
याद आया फिर वोः बालपन
दिल वोःपुरसुकून सा
बचपन की कुछ सहेलियां
कुछ यौवन की मस्त पहेलियाँ
आयी याद खिलन वोः धूप की
और जाड्डे की सर्द रातें भी
पंख लगाये उड़ता था मन
हल्का हो बादलों की तरह
न सीमाओं का ही बोध था
न थीं कोई पाबंदियां
सुहाना था बहुत वोः बचपन का आलम
बेफिक्र मन खिलखिलाने का आलम
ताज़ा हैं वोः यादें आज भी
जैसे कल की ही तो बात हो
छिटकी हुई सी चांदनी और
और तारों भरी वोः रात हो

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