सोमवार, 24 अगस्त 2015

तुम्हारे पास समंदर था और मेरे पास पहाड़ दादू

तुम्हारे पास समंदर था सो मचलते रहे ताउम्र
मेरे पास पहाड़ था,
सो भटकता रहा मोड़ मुहानों से ताउम्र।
तुम्हारे पास समंदर की लहरें थीं खेलने उलीचने को
जो तुमने किया,
तटों से टकराती लहरें गिनते रहे उम्र भर
मेरे पहाड़ मुझे ताकीद करते रहे उम्र भर
सावधानी घटी कि गए हजारों हजार फीट नीचे।
पहाड़ अकसरहां कहा करते थे
मैदान भला या पहाड़ तय कर लो
खुद सोच विचार कर लो
फिर निकलो
मगर पेट था कि माना नहीं
चला गया
पहाड़ के सन्नाटे को पीछे धकेल।
पर तुम्हारे पास तो समंदर था-
लहराता
बलखाता
जहां गिरने की कोई निशानी न थी
डूबता भी कौन है किनारों पर बसने वाले
मगर तुमने क्यों छोड़ा समंदर का साथ?
पहाड़ों के दर्द को भूला
भला मैं कब तलब मैदान फांकता
बार बार लौटता रहा पहाड़ मगर
अब पहाड़ ग़मज़दा था
खाली खाली खोखला पहाड़
मौन बस यही कहता रहा
अब मैं भी थक गया हूं
इन मोड़ मुहानों पर जी नहीं रमता
तुम क्या गए सारी रौनकें चली गईं गोया।

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