शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

(संयोग अंश चार )

    1. (संयोग अंश चार )

      {{ लेखनी }}

      अजब तेरी कहानी, गजब तेरे खेल
      लेखनी तेरे देखे, हमने रूप अनेक

      उस वक़्त कितनी हसीन
      तुमने पाया था रूप भगवान !
      लिख सबकी जीवन गाथा
      बनी थी साक्षी जीवन का प्रमाण !!

      एक रूप में जब देखा मैंने,
      आई थी मेरे हाथो प्रथम बार !
      सीखा था तुमसे लिखना
      बनी थी तुम मेरे जीवन का आधार !!

      वो भी रूप अनोखा होता,
      जब होती हो तुम गुरु के हाथ !
      दुनिया में दिला देती
      किसी को भी अपनी विशेष पहचान !!

      एक मंजर मैंने तेरा वो भी देखा
      बन जाती है किसी के दुष्कर्म से घृणा की पात्र !
      न्यायधीश के हाथो में आकर,
      “संयोगवश” धारण करे, करने को न्यायोचित उद्धार !!
      *
      *
      *
      [ ……..डी. के. निवातियाँ……… ]

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