मंगलवार, 11 अगस्त 2015

लम्हें खामोशी के

कितना सन्नाता छाया हुआ है
अच्छा नहीं लगता
न कुछ बोलती हो
न कुछ बातें ही करती हो
ये खामोशियाँ मुझको
काँटने को दौड़ता है
दूरियाँ क्या इतनी बढ़ गयी?
ये कैसा जख्म दे दिया मैंने तुमको
की मेरे मलहम तुम्हें
और जख्मी बनाये
मेरी तसल्ली तुम्हें और जलाये
मन ही मन रोता हुँ मैं
पर तुम्हारी आँसू कैसे पोछू मैं?
हर दिन हर लम्हा
डरा रहता हुँ आजकल
तुम भी……
न जाने कब क्या खबर आ जाये
कब पावो तले जमीन खीसके
या टूट पड़े ये नीला आसमाँ
अभी तो सिर्फ काली बदली ही छायी हुई है
एक पल एक लम्हा
जो लम्हा शायद जुदा कर दे दोनो को
जिंदगी भर के लिए
कितना दर्दनाक होगा वो लम्हा
सोछके घबड़ा जाता हुँ मैं
कितनी सुन्दर चली जा रही थी जिंदगी
लेकिन ऐसी डरार आयी
जो कभी भी मुरम्मत की जा न सके
ओ बुरी नजरवाले
तु धुल में मिल जाये मिट्टी बन जाये
हमारी खुशहाली खतम कर दाली तुने
ओ ऊपरवाले
या पनाह में ले लिजीए हम दोनो को
ये खामोशी
ये संजीदगी
छुभती हुई अंदर में विलखता हुआ ये दर्द
और बर्दास्त नहीं होता……..!

-किशोर कुमार दास

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here लम्हें खामोशी के

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें