सरल भाषा मे अगर पूछो तो
  चन्द्रमाँ और एक चमकता बिंदु
  शीतलता की समीर, सरस्वती की बीणा
  दूर दिखती रेगिस्तान की सिंधु.
क्या ? सिर्फ,  वो बिंदु  चश्मेबद्दूर है
  क्षितिज पर प्रतीत होता है मगर दूर है !
  क्या उसका कक्ष, वह है जीवन का
  या किसी और उलझन से मजबूर है 
समुद्र मंथन के रत्नो से बहुमूल्य
  ब्याख्या न हो पाये महाकाब्यो जिसकी
  सूर्य किरण के प्रकाश से तेज
  आवाज मे बजती  रागिनी थी जिसकी 
बेदो से ज्यादा, पुराणो से परिपूर्ण
  संसार और सृष्टि जहाँ लगे सम्पूर्ण
  वो चमक मे न समन्वय बिलसिता थी मेरी
  वो हर सोच की चीज से लगे महत्वपूर्ण.
किस लिए पिरोये, टूटे आभूसण को फिर से
  छीन के ले गए सामान था जिनका
  वो रिक्त रह जाये को क्या हम पाये
  माला के मध्य मे स्थान था जिनका
आकाशगंगा मे भी पहचान लेंगे हम उनको
  परिकर्मा मे एक बार पाया था जिनको
  शायद वो जन्मो के बाद मिलेंगे
  इंतज़ार करेंगे, क्या ८४ लाख भी कम पड़ेंगे?

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