सोमवार, 17 अगस्त 2015

यदि मैं होता स्त्री कोई

यदि मैं होता स्त्री कोई
रहता कैसे उनके बंधन,
जिनके निर्णय क्रूर-कृत्य से
रहा सुबकता स्त्री-बंधन।
मन्तव्य से कर तुलना मैंने
जो हित तोला सत्य बराबर,
अंध और विश्वास जगत में
गौण हुआ फिर स्त्री-दर्शन।
आखिर कैसे सह पाती है
कोमल स्त्री कठोर थपेङे,
मुख पर ताला बोल सिमटते
ढली सांझ फिर करुणा घेरे।
ले लेता मैं तलाक अकिंचन
स्वायत्त रहित यह वृत्ति अकिंचित,
जीवन-भ्रमर नहीं भृगुरेखा
खोजा करता राग अनिश्चित।
न्यायालय का न्याय अधूरा
पिसकर नारी बन गई चूरा,
प्रमाणिकता की बंदिश बिन
स्त्री-जीवन लक्ष्य अधूरा।

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