वक्त की जब सुई बिखरी
  तस्सली भी बेरंखी निकली
  सदीयाँ लमहों में गुजरी
  राहें भी अधूरी निकली
साँझ भी अधंरी बेठी
  मेहफिलें भी तन्हा गुजरी
  साथ के वादे अधूरे
  कई कसमें झूठी निकली
पत्थरों को पूजते पूजते उम्र गुजरी
  ना कोई शक्ल बदली
  ना कोई सीरत बदली
  ख्वाहिशें, चाहते, सब अधूरी निकली
  उम्र गुजरी, साँस टूटी …
  फिर…एक उम्मीद दगा दे गई
  …एक उम्मीद दगा दे गई…!

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