गुरुवार, 23 जुलाई 2015

किसान का आत्मघाव

मैं किसान
वो मेरा सफ़ेद गमछा
कोई
मिटटी में बो गया
जीवन के अंधियारे से
काला हो गया..

हुनर तो पाया है
बीज बोने का
मैंने भी
पर घर का बीज
कोई चुरा ले गया..

उजडती फसल सी रोती बिटिया
दुबला पतला सा बेटा
सुहागन की चलती गठिया..

दिल की टीस से चलता है हल
सफ़ेद पगड़ी बनी समस्या का घर
रात दिन दिन है रात
हर समय सूखे की बात..

अन्न का दाता हूँ
किसान हूँ
देने वाला हूँ सबको
मांगने वाला मैं क्यूँ हूँ?

दर्द से चप्पल फट गई
धोती पीली हुई सदियाँ बीत गई..
हरियाली नाराज़ है ज़िन्दगी सूख गई..

किस्मत की लकीर
जैसे चलना भूल गई
कष्ट को आने में
कभी चूक नही हुई…

कबसे बैठा हूँ आस का सूरज लिए
गरम धूप भी जीवन का हिस्सा हुई
पसीने से बहती हुई मेहनत
किसी उधार की नौकर हुई..

सुरभि सप्रू

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