जीवन की गठरी को
  ख़ुद ही उठाना पड़ता है ,
  चलता चल ये मुशाफिर
  ग़म से तू क्यूँ डरता है I
जीवन है पथरीली राह
  कही उच तो कही नीच है,
  दुख आए या चाहे  ख़ुशी
  हमे जीना इसीके बीच है I
चलते हुए गर तू थक जाए
  पर रुकना कभी नही ,
  भले भाग्य हो बिपरीत तुम्हारा
  पर झुकना कभी नही I
आख़िर जिंदगी क्या है ?
  एक जंग ही तो है,
  डरो नही गर छूटे सबका साथ
  कर्म तुम्हारा संगि तो है I
जीवन के इस जंग को
  खुद ही लड़ना परता है,
  आया यहा तो, कुछ किए जा
  हार से तू क्यूँ डरता है I
-पार्थ
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