ज़िन्दगी के इस भीड़ में …
  ना ठर है ना ही कोई ठिकाना …..
  हर वक़्त चाहत रहती है सीधी राह पर चलना …
  पर ये खोटी किस्मत ना जाने कब मेहरबान हो जाये …
  और ना जाने किस मुश्किल मोड़ पर..
  पड़ जाये हमें मुड़ जाना ……..
  चंद लम्हें है इस ज़िन्दगी में …
  ना जाने ये भी कब हमारा साथ छोड़ दे …..
  कड़वाहट का प्याला हटा लो …
  मिठास भरी चुस्की लगा लो …..
  नाजुक -रिश्तों की डोर टूटने ना देना ,…
  और रिश्तों को विश्वास के धागे में ही पिरोना …..
  ज़िन्दगी के इस भीड़ में ….
  ना ठर है ना ही कोई ठिकाना ……
  ज़िंदगी में ”शान” और ”गुरुर” नहीं,,…
  हमेशा ”हम” और ”अपनापन” ही  अपनाना ….
  ”मैं” जैसे अंहकार शब्द को कभी अपने पास मत लाना …..
  ख़ुशी से हरपल को जीना  है तो
  रुस्वाई का दमन कभी ना पकड़ना …..
  एक दूसरों के सुख दुःख में साथ दे के ….
  अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी ऐसे ही चलाना…..
  ज़िन्दगी के इस भीड़ में …
  ना ठर है ना ही कोई ठिकाना …..
शनिवार, 18 जुलाई 2015
ना ठर है ना ही कोई ठिकाना....
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें