जब भी देखता हूँ
  किसी शायर की शायरी
  गीत-ग़जल
  या किसी कवि की वो,
  मनमोहक, मधुर, मनभावन कविता
  मेरे अन्तः मन से
  बस यही आवाज है आती
  काश…
  मैं भी कुछ लिखता!
  कुछ छंद, कुछ गीत
  चन्द पंक्तियाँ
  चार लाईने
  नए शेर, नई गज़लें
  मेरी अपनी भी होती
  मैं भी बनता कवि
  किसी जीवंत कविता की,
  मेरे लिखे गीतों के बोल भी
  होते कही मशहूर
  शायद यहीं
  मैं भी सुनता मैं भी देखता,
  काश! मैं भी कुछ लिखता।
  कोई तो हो जो मुझे नई राह दे
  मेरी बेचैन चाहतो को
  नई चाह दे।
  आखिर कौन होगा वो
  जो मेरे हुनर को भी देखेगा,
  लगा देगा जो पंख मेरे अरमानों को
  मेरे नज़रिये को मेरी नज़र से भी देखेगा।
  चाहत है, ये आरजू है
  जुस्तजू भी मेरी,कि
  मैं भी इंसान हूँ
  मुझे उन इंसानों में अलग दिखना है
  मुझे भी कुछ लिखना है।
प्रभात रंजन
  उपडाकघर,रामनगर
  प0 चंपारण(बिहार)

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