रविवार, 26 जुलाई 2015

खुद को पहचान लूँ तो चलूँ ---- भूपेंद्र कुमार दवे

खुद को पहचान लूँ तो चलूँ

बचपन देखा, यौवन देखा
बुढ़ापा भी देख लूँ तो चलूँ
दुनिया को ना पहचान सका
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

शंका के पलने पर झूला
हिचकोले खा भ्रम में उलझा
ठोकर खाई गिरा सड़क पर
सबने धड़-सर को कुचला

कमर झुकाये लाठी लेकर
अंधी आँखों आहें भरकर
चलना कुछ सीख लूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

अहसासों के फूल अनोखे
टूट टूटकर साँसों में उलझे
अंधी अपाहिज बुझी कसमें
बिखर गई यौवन के मद में

अब कुछ वादे हैं सपनों में
सजते रहते जो पलकों में
उनको भी बिखरा दूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

बचपन में जो माँ ने दी थी
उन साँसों में महक पली थी
उनका सौदा किया उमर ने
उघार लिये आहों के गहने

यौवन भर यूँ ही पछताने
साँसें गिनने, आहें भरने
गर वह भी छोड़ सकूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

जीवन के अवसाद मिटें तो
नाजुक से जज्वात मरें तो
थमी साँस की जलन मिटे तो
रुकी साँस की घुटन घटे तो

कुछ क्षण जीने की छूट मिले तो
कुछ जीने की चाह बढ़े तो
कफन खुद का बुन लूँ तो चलूँ
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

अँधेरा होना था हो गया
इक चिराग ढूँढ़ लूँ तो चलूँ
बुझे दीप देख थक गया हूँ
इक अपना जला लूँ तो चलूँ

जिन्दगी नहीं, रुह थकती है
यह थकन सुखन बने तो चलूँ
खूब सताते रहे सितारे
खुद किस्मत बदल लूँ तो चलूँ

बचपन देखा, यौवन देखा
बुढ़ापा भी देख लूँ तो चलूँ
दुनिया को ना पहचान सका
खुद को पहचान लूँ तो चलूँ।

—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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