मंगलवार, 28 जुलाई 2015

कविता

अब भी सवेरा होता है वैसे ही
अब भी लोग सुबह टहलने जाते है
एक बेतरतीब सी आवाज़े
अब भी गूँजा करती है कानो में
सूरज अब भी वैसे ही निकलता है
खिली हुई धूप के साथ
काम वाली औरत की कर्कश आवाज़
अब भी गूँजा करती है कानों में
अगर नही है कहीं तो बस तुम नहीं हो..
अब भी लोग आते है
सब ठीक है न,कहने के बाद
बगैर मौका दिए
अपनी परेशानियॊं का पुलिन्दा खोल देते है
अब मै सुनता हूँ उन्हें
बेबस धैर्य के साथ
बस नहीं रहता है तो तुम्हारा साथ
अब भी सूरज ढ़लता है
शाम अब भी होती है
बस घर लौटते वक्त अब कोई नही कहता
आज फिर देर कर दी..
अब भी बेनूर अन्धेरो के जाल बिछे होते है
बस नही होता है उसे काटने वाला तुम्हारा चेहरा ..

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