गुरुवार, 30 जुलाई 2015

उजाला

तिनको ने तुके जोड़ी
पत्तो पे नशा छाया
शायद किसी गजल ने फिर अपना घोसला बनाया
कुछ दूर बज रही थी जो मंजरी लयो की
झुक कर उसी का चेहरा माथे के पास आया
शब्दों को फिर सुंघा मैंने
अर्थो को फिर चूमा मैंने
छन्दो की सीपियों को फिर अपने हाथो पर उठाया मैंने
रफ़्तार से सहम कर छप्पर में जो छिप रही थी
वापस बुला के उस संवेदना को लाया मैंने
गलियो में रौशनी है
सड़के भी अब चुपचाप है
अच्छे सभी पडोसी
मन में घर बसाये है
खुद को बहुत सवारा मैंने
फिर जोर से पुकारा मैंने
तब ही इक पंछियो का टोला
आँगन में मेरे उतर आया
पंखो पे उनके मैं भी अपना नाम पता लिख दूँ
इस लोभ ने मुझे बहुत छकाया

कनक श्रीवास्तवा

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