रविवार, 26 जुलाई 2015

तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं ---- भूपेंद्र कुमार दवे

तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं
पत्थर की इस मूरत में भी
तुझे देख मैं झूम रहा हूं

गूंथ रहा मैं स्वर की माला
भक्ति-रूप की पीकर हाला
झूम उठा ये मन भी मेरा
मिटा हृदय का सब अँधियाला

यह प्रकाश पाकर मैं तेरा
तेरे पथ पर घूम रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

यह है कंपित लौ जीवन की
क्षीण ज्योति-सी मन मंथन की
टूट टूट कर बिखर रही है
जिसमें काया प्राण किरण की

थर थर कॅपकर स्थिर सी होती
साँस अधूरी फूँक रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

है काल की बाढ़ में डूबी
नाव कुंआरी टूटी फूटी
और पुकारूँ तुझको फिर भी
साँसें रह जाती हैं टूटी

तेरी लहरें अपने अंदर
गिनता-गिनता, डूब रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

तू जग का आधार बना है
तुझसे हर श्रंगार सजा है
मेरे आँसू की रचना कर
तू दुख का आधार बना है

मैं जलकण तेरी आँखों का
आँसू बन-बन, टूट रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

पथ के साथी चलते चलते
रूठे, छूटे पथ पे बढ़ते
पर तेरे कहने में आकर
उठता हर पल गिरते गिरते

है पथ जो बस अंधा मुझसा
उसकी मंजिल ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

यह गहरी जीवन खाई है
अश्रुधार से बनी हुई है
चिर जर्जर है, दर्द भरी है
आशा अजेय बनी हुई है

घायल आँसू के जख्मों को
नम पलकों में ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं

तुझको पाने मंदिर जाऊँ
मस्जिद, गिरजाघर हो आऊँ
किन्तु शून्य के अनंत कण में
कहाँ खोजकर तुझको पाऊँ

अपने ही मन के अन्दर अब
चप्पा चप्पा ढूंढ़ रहा हूं
कब से तेरा ध्यान लगाये
तेरी प्रतिमा पूज रहा हूं।
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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