“पिता जी।”
एक पल भी आरम नही हैं,
  जब से बोझ उठाया हैं,
  जीवन के इस रंग भवर में,
  फंसता ही चला गया हैं ।
बीत गए दिन खुशियों के इनकी,
  अब मुश्किल घडियां आइ हैं,
  पिता जी बाडी मुश्किल से यहाँ,
  अब दो पैसा कमऐं हैं ।
अपने को परेशान करके,
  परिवर को उंचा उठाया हैं,
  एक पल भी आरम नही हैं,
  जब से बोझ उठाया हैं ।
सुबह उठ है काम पे जाना,
  पिता का धर्म् हैं इन्हें निभना,
  रो परती हैं नाजुक आंखियॉ,
  जब ना सके वें इसे निभना ।
थी मन में आशाऐं अनेंक,
  पुरा न कियें कोइ भी एक,
  मार दियें चहत को अपने,
  तड. दियें सभी अपने सपने ।
एक पल भी आरम नहि हैं,
  जब से बोझ उठया हैं,
  जिवन के इस रंग भव्र मे,
  फंसता ही चला गया हैं । 
      संदीप कुमार सिंह।
        +918471910640.

ek kosis ki apni pita ki bat rakhane ki.
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