शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

मैं निश्वार्थ प्रेम का दर्पण हूँ

ज्यों आकुलता तोय मिलन की दिनकर किरण उदय में है।
ज्यों आतुरता पुष्प मिलन की भ्रमर गीत के आशय में है।
पुनः वो घड़ी अब द्वार खडी ले रही प्रेम अंगड़ाई है।
तुमसे प्रथम प्रणय के पल प्रियतम कैद ह्रदय में है।

स्निग्ध धरा पर नभ, नीर, पवन का आकर्षण स्वीकार करो।
प्रिय, पावन प्रकृति में पवित्र प्रेम का आमंत्रण स्वीकार करो।
फिर आलिंगन में भर लूँ मैं और अधर सुधा रस पी जाऊं।
भुजपाशों से स्फुरित,ह्रदय सरल का निमंत्रण स्वीकार करो।

मैं निश्वार्थ प्रेम का दर्पण हूँ तुम मुझमें रूप निहार लो।
मैं झरने का निर्झर जल हूँ तुम मुझसे तन को संवार लो।
मैं शशि की हूँ शीतलता,गुंजन की मद्धिम स्वर लहरी।
मैं बसंत ऋतु का समर्पण हूँ तुम मुझसे सोलह श्रृंगार लो।

अब न वियोग के गीत लिखूं तुमसे इतने मैं समीप रहूँ।
समुद्र तट सा जीवन जी लें तुम मोती मैं जलसीप रहूँ।
हमारा प्रेम “विशेष” हो विवश नहीं समय चक्र के आगे
बुझा सके न जिसे आँधियाँ तुम बाती रहो मैं दीप रहूँ।

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