मानव शब्द
हे मनुष्य, तुम कहा जा रहे हो
  रास्ता तो यहाँ है, उधर क्यूँ  जा रहे हो
  याद करो जब शब्द नहीं थे तुम्हारे पास
  एक गूंगे जानवर की तरह झुण्ड में रहते थे
  एकता का सहारा लिए शिकार  करते थे
  भूक इतनी थी की सिर्फ पेट भर जाये
  उम्मीद इतनी थी
  जो औकात की सीमा में आये
  जब तुम वजूद में आये
  तुम्हे मानव कहा गया
  दुनिया के सबसे शक्तिशाली जीव श्रेणी बनी
  हे  मानव तू  सबसे ऊपर रखा गया
  शायद तुम भूल रहे हो ,
  या ये  कोई जीव परिवर्तन है,
  हे मनुष्य, तुम कहा जा रहे हो ?
  रास्ता तो यहाँ है, उधर क्यूँ  जा रहे हो ?
मानता हूँ, यहाँ कुछ कीचड़ है
  तुम्हारे पाँव गंदे हो जाएँगे
  सबसे बड़ी बात कपडे भी न बच पायंगे
  ये भी यकीन है कोई जानवर  मिलेगा
  जिसके दांव से हमें  सतर्क रहना पड़ेगा
  पैरो की आवाज़ जंगल को जगा देगी
  कांटो के रस्ते पर, नंगे पांव चलना होगा
  ज़ख्म तो होंगे, पर मरहम न होगा
  भूख होगी तो पत्थर पेट पर बाँध लेंगे
  प्यास लगी तो कोई नदी तलाश लेंगे
  मुश्किल तो है पर यही सही है
  मेरे स्वभाव का भाव यही है
  हे मनुष्य तुम कहा जा रहे हो ?
  रास्ता तो यहाँ है उधर क्यूँ  जा रहे हो ?
समस्या यही है तुम भूल जाते हो
  सहूलियत के रस्ते अपनाते हो
  कर्म की मरहम माथे पर लगाए
  दबे को तुम  और दबाते हो
  लालच से लटकी तुम्हारी जीब
  किसी कुत्ते की तरह बिना मेहनत किये
  कसाई की दूकान के बाहर लटक रही है
  खून से सना मांस का  टुकड़ा पाने के लिए
  तुम्हारी शातिर निगाह भटक रही है
  और कौन सा रूप बाकी है तुम्हारा जो देखा नहीं
  इतना गिर चुके हो और कितना  गिरना है
  अच्छा समझ गया ये मानवता के शब्द की शक्ति है
  शब्द के ताने बाने का सब खेल है
  व्यवहार , असत्य, धर्म,राजनीत
  सब शब्दों का आधार है
  ये शब्द एक वरदान था
  जिस का मालिक इंसान था
  वह रे शब्द  तेरी दुर्दशा
  मानव विष से तू भी न बचा
  अफ़सोस ये  नहीं की  तू शब्द है
  अफ़सोस ये है की शब्द खुद निशब्द है
  ये जुबां बोलकर भी चुप है
  आखिर कब शब्द का रौद्र रूप दिखेगा,
  तब तक इसी प्रश्न को खड़ा  करना पड़ेगा.
  ओ मुनष्य तुम कहा जा रहे हो ?
  रास्ता तो यहाँ है उधर क्यों जा रही हो ?  
दानिश मिर्ज़ा
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