गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

मेरी जुबान

बिन लगाम है ये मेरी जुबान,
काट सकती है,तलवार की धार को,
चुभन दे सकती है सुई को,
छेद कर सकती है आसमान में,
तोड़ सकती है जंजीरो को,
लटका सकती है हवा में बिन सहारे की चीजो को,
उगल सकती है आग को,
जा सकती है उस पार साहिल के,
चल सकती है बिन पैरो के,
धड़क सकती है बिन सांसो के,
रह सकती है बिन खाने के,
जिन्दा है बिन पानी के,
तीर मार सकती है बिन धनुष के,
देख सकती है बिन आँखों के,
रोक सकती है सागर की उफनती लहरो को,
गिन सकती हा मिटटी के कण-कण को,
चूका सकती है कर्ज दुनिया के बोझ का,
निगल सकती है.
छू सकती है बिजली की तारो को,
बदल सकती है इन्द्रधनुष के रंगो को,
डाल सकती है जान मुर्दे में,
सख्त पाचन बिन गुर्दे को,
‘सवना’लिख सकती है बिन कलम,
जैसे पी सकता है बादल सागर के पानी को !!

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