“इकरार- कभी जो कर न सका”
नादानियाँ जो थी दिल की , कुछ तेरी थी कुछ मेरी थी |
  इंकार जो था इकरार बना, इकरार कभी जो कर न सका |
  हँसते थे हम तुम जब संग संग में , वो हास्य बना उन वायदों का |
  जो किया कभी था तेरे संग, न है अब कोई यादों का उमंग |
  कोई लूट गया उन यादों को , जैसे कोई कटी पतंग |
मुझे तो इल्म था, की तुझे इल्म है इस बात का |
  मेरी पलकों के पहरेदार भी, तेरी खातिरदारी में मशरूफ थे |
  मैं मूक बना आवाज़ में भी ,जब तेरा इंकार-इंकार बना |
  मैं हास्य बना इस महफ़िल का, इकरार कभी जो कर न सका |
  मरकर भी सबर इस बात का था, तू मेरी थी मैं तेरा था |
जन्नत के दरवाज़े पर भी, इक आस जो थी, वो आने की तेरी |
  तू जीते जी मेरी न हुई , मैं मरकर भी तेरा ही रहा |
  अब हँसता हूँ उस महफ़िल पर, जो कल तक मुझपर हँसता था |
  चाहत को मेरी, धड़कन को मेरी , जोड़ो में सजाये बैठा था |
  इंकार न था उस पगली का, बस इकरार कभी मैं कर न सका |
  by roshan soni

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