बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

उलझन में हूँ ( ग़ज़ल )

मर मर के जी रहा हूँ या बना कोई लाश जिन्दा हूँ !
मुझ से न उलझ मेरे यार आज खुद उलझन में हूँ !!

समझदार हो गया हूँ या अभी कुछ नादानी बाकी है !
बेखबर हूँ खुद से मगर लगता है अब सुलझन में हूँ !!

जिस तरफ जाती निगाहें मेला लगा नजर आता है !
फिर लगे हर इंसान तनहा क्यों इस उलझन में हूँ !!

जिंदगी की कशमकश में मशगूल कुछ इस तरह है !
बना बहाना वक़्त का अपनों से दूर बिछडन में हूँ !!

वैसे तो मिल जाते “धर्म” हर मोड़ पे हमदर्द बहुत है !
शायद ये बस्ती अदाकारों की हो इसलिए उलझन में हूँ !!

मर मर के जी रहा हूँ या बना कोई लाश जिन्दा हूँ !
मुझ से न उलझ मेरे यार आज खुद उलझन में हूँ !!

डी. के. निवातियाँ ________@@@

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