शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

नज्म

नज्म

समझते रहे जिनको हम अपना खानसामा !
सदा उनके हाथो अपनी अस्मित लुटती रही !!

जो बनकर बैठे है रहनुमा परदे के पीछे खंजर लिए !
इस दिल से उनके लिए फिर भी दुआ निकलती रही !!

बहता रहा लहू अपना पसीने की धार बनकर !
पीकर जाम की तरह उनकी प्यास बुझती रही !!

हम बिछते रहे सरेराह उनके स्वागत पुष्प बन !
वो कुचलते गए और हस्ती अपनी मिटती रही !!

बिकते रहे कोड़ियो के दाम, लगी कीमत जान की !
किया सरेबाज़ार नीलाम, बोली अपनी लगती रही !!

कुछ इस तरह से हुआ काम तमाम अपना इधर !
चलाये जिन्होंने खंजर उनको शाबाशी मिलती रही !!

हम मरते गए,बिखरते गए,जिंदगी यू गुजरती गयी !
अपनी कब्रगाह पर लोगो की महफ़िल सजती रही !!

आह तक न निकली जुबान से अपनी दम घुटती रही !
मैंने किया मजाक था, ये कह हँसी उनकी छुटती रही !!

डी. के. निवातियाँ_____________!!!

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