उनकी महफ़िल के हम भी तलबगार है |
पर मेरे हिस्से में गुनाह हज़ार है ||
न शिकवा कभी न गिला हमसे,
इसी बात से हम सदा शर्मसार है ||
एक हम ही नहीं उनकी जिंदगी में,
जमाने के और भी दर्द बेशुमार है ||
वो पागल है चाहत की दौलत पाकर,
और हम जमाने भर के समझदार है ||
अपने सिर ले लिए गुनाह सारे इश्क़ में,
वो आज भी मेरा सच्चा मददगार है ||
तराशता है मुझको हर कदम साथ चल,
कभी वो सुनार तो कभी कुंभकार है ||
करीब लाता है औ’ सीने से लगा लेता है,
वो साँसों का बन जाता राज़दार है ||
Read Complete Poem/Kavya Here उनकी महफ़िल के हम भी तलबगार है / महेश कुमार कुलदीप 'माही'
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