एक  कहानी बतलाऊँ
  उस देश, उन दीवानों की
  जो निर्भय हो कर जीते थे
  आज़ादी के परवानों की 
जान हथेली पर रख कर
  सर कफ़न बाँध वो चलते थे
  आँखों में था इक तेज भरा
  सीने में शोले जलते थे 
कभी नभ पुकारता था उनको
  कभी धरा फ़क्र से थी कहती
  इक बात बता ओ लाल मेरे !
  है मंज़िल तेरी कहाँ रहती
मंगल, बोस, भगत, अशफ़ाक
  थे नाम भिन्न पर सोच नहीं
  उन वीरों की आँखों में दिखता
  आज़ादी का झिलमिल स्वप्न वही 
हम  बहुत  सह  चुके अत्याचार
  अब अंग्रेज़ों की बारी है
  भर चुका  घड़ा है दुश्मन का
  हाँ अगली चाल हमारी है 
शब्द थे वो  या मंत्र कोई
  उठ खड़ी हुई सारी आवाम
  बूँद-बूँद सागर बनता है
  जन -जन बनता है संग्राम
एक बार चल दिए जो धुन में
  थके रुके या झुके नहीं
  भारत का परचम था दिखता
  नज़रें जाती जहाँ कहीं
कांप गई दुनिया उस दिन
  शुरू हुई एक नई कहानी थी
  इंक़लाब की गूँज थी वो
  ललकार जो हिंदुस्तानी थी 
खामोश हुए कितने बचपन
  समर्पित हुई जवानी भी
  था जज्बा या  था पागलपन
  पर खूब थी वो जिंदगानी भी 
सच थे या कोई किस्सा थे
  जाने वो दिन वो रात कहाँ
  कुछ लोग हुए थे ऐसे भी
  पर अब हममें वो बात कहाँ।
सुनो कहानी बतलाऊं
  उस देश, उन दीवानों की
  जो निर्भय हो कर जीते थे
  सच्चाई के परवानों की 
राम, विवेक, दयानंद , गाँधी
  लोग अलग पर लक्ष्य नहीं
  अनुभवी आँखों ने पहचाना
  उन्नति का था मार्ग सही 
केवल स्वराज ना मांगो तुम
  सम्मान तुम्हारा भी अधिकार
  यह विजय नहीं सम्पूर्ण अभी
  जाना है हम को मीलों पार 
ऊँच-नीच  व रँग-लिंग का
  बुनता क्युँ ताना बाना है
  था मिट्टी से तू खड़ा हुआ
  फिर मिट्टी में मिल जाना है
लाँघ दे इन सीमाओं को
  संदेह ये तेरे मन के हैं
  क्यों ढूंढें है तू धर्म प्रांत
  सब पंछी एक गगन के हैं 
युगपुरूष है तू बस कदम बढ़ा
  आक्षेप से क्यों घबराता है
  अब कर्म ही है परिचय तेरा
  भारत ही भाग्य विधाता है 
बहुजन हित ही सर्वोपर हो
  और थमे ना ये सिलसिला कहीं
  कहते वो क्रन्तिकारी थे
  मर जाएँ भी तो गिला नहीं 
सच थे या कोई किस्सा थे
  जाने वो दिन वो रात कहाँ
  कुछ लोग हुए थे ऐसे भी
  पर अब हममें वो बात कहाँ।
सुनो कहानी बतलाऊं
  उस देश, उन दीवानों की
  जो निर्भय हो कर जीते थे
  दूरदर्शी उन विद्वानों की 
विक्रम, भाभा, श्रीनिवास, रमन
  नए पँख पा रहा था विज्ञान
  था समय कठिन पर भारत की
  आकांक्षाओं ने भरी उड़ान 
युग था वो अंधकारों का
  अफ़वाहों का था जाल घना
  अंधविश्वास की सूली पर
  पीड़ित जनता का लहू सना
भ्रांतियों से थी भयभीत प्रजा
  धूमिल होती अपनी पहचान
  दिशाहीन पड़ा सारा जन गण
  और शिक्षा के भी घुटते प्राण 
ऐ नादाँ इन्सां आँखें खोल
  इस व्यूह का मतलब जान ज़रा
  जिस पिंजरे में है बेबस तू
  वह तेरा है पहचान ज़रा  
शौर्य प्राप्त ना शिथिल करे
  कायर कब कीर्ति पाते हैं
  वीरों ने हार नहीं मानी
  ज़िद्दी इतिहास बनाते हैं 
उज्वल भविष्य को पाना है
  यह स्वप्न नहीं यह ठाना है
  इस दुनिया में हैं सर्वश्रेष्ठ
  यह दुनिया से मनवाना है 
सच थे या कोई किस्सा थे
  जाने वो दिन वो रात कहाँ
  कुछ लोग हुए थे ऐसे भी
  पर अब हममें वो बात कहाँ।
आज दिन तो है त्यौहारों का
  फिर आँख ये क्यों भर आई है
  शायद लहराते झंडे में
  दिया केसरी रंग दिखाई है 
बाज़ार, ईमारत, कारख़ाने
  और सड़कें खूब बनाना तुम
  खुशियों के पीछे दबी हुई
  कुर्बानी भूल ना जाना तुम 
लहलहा रही है फसल नई
  और ढ़ोल नगाड़ों की है चाह
  इस शोर में ही खो गई कहीं
  उन वीर दीवानों की भी आह 
भूले को क्षण ही काफी है
  क्यों दिन महीने और साल गिनुं
  आज़ादी की इस जयंती पर
  कितनी आँखें हैं लाल गिनुं 
लगता है हो बस कल की बात
  दुश्मन हर ओर से आया था
  घर के बाहर और अंदर भी
  हाँ उसने घात लगाया था 
डर जाते गर उस दिन हम सब
  खंडित हो जाती अपनी आन
  क्या लोग थे वो जो अडिग रहे
  निस्वार्थ ही हँस कर दे दी जान 
यह आज कहाँ कल से बेहतर
  दिखती तेरी लाचारी है
  लालच, शोषण और प्रपंच से
  हो गई ये गंगा खारी है 
उठो हुआ है सूर्य उदय
  कुछ नाम हो ऐसा काम करो
  यह जीत मिली है मुश्किल से
  अभिमान नहीं सम्मान करो 
फिर घड़ी वहीँ ले आई है
  और माँगे है तुझसे बलिदान
  क्या सच में तेरा लहू सुर्ख
  या बस जीने का अरमान ?
यह जीवन तो पहला रण है
  आगे इसके कई जीवन हैं
  सुमार्ग को जो अपनाएगा
  ना काल मिटा उसे पाएगा
ईश्वर बन लेगा पार्थ तेरा
  कहीं शूल मिले कहीं श्रेय मिले
  सौभाग्य बने संकल्प से ही
  पतझड़ के बाद ही फूल खिले
मरने वाले तो चले गए
  हम तुम मात्र सम्वाद करें
  उस जीने से मृत्यु बेहतर
  जिस मौत को दुनिया याद करे।
– डॉ. सूरज प्रताप
Read Complete Poem/Kavya Here अब हम में वो बात कहाँ
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