गुरुवार, 12 मार्च 2015

तस्सवुर में - संजीव

ये ग़ज़ल मैंने लिखी है तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
जी रहा हूँ इसलिए की कभी देखूंगा जी भर-भर कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
क्या जुनून है तुम्हें पाने की न थका हूँ चल-चल कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
मैं डूबा हूँ तेरी यादों में न कभी सोचा रूक-रूक कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
भूल गई क्या वो लम्हा कभी कही थी मुझे अपना रो-रो कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
लिख रह हूँ ये ग़ज़ल कि सुनोगी तो आँशु गिरेंगे बह-बह कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
जी रहा है संजीव अब तक ज़माने की ज़ालिमि सह-सह कर
तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर

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