ये ग़ज़ल मैंने लिखी है तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  जी रहा हूँ इसलिए की कभी देखूंगा जी भर-भर कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  क्या जुनून है तुम्हें पाने की न थका हूँ  चल-चल कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  मैं डूबा हूँ तेरी यादों में न कभी सोचा रूक-रूक कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  भूल गई क्या वो लम्हा कभी कही थी मुझे अपना रो-रो कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  लिख रह हूँ ये ग़ज़ल कि सुनोगी तो आँशु गिरेंगे बह-बह  कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर
  जी रहा है संजीव अब तक ज़माने की ज़ालिमि सह-सह कर
  तुम्हें तस्सवुर में रख-रख कर  
गुरुवार, 12 मार्च 2015
तस्सवुर में - संजीव
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