सोमवार, 16 मार्च 2015

मेरी कविता

ये अंतर्मन के घावों को शब्दों से सहलाती है ,
हृदय -विवेक द्वन्द में ये निर्णायक बन जाती है,
किसी और की पीड़ा भी जब अपने ऊपर लगती है ,
जब भरे शहर की सड़कें भी वीरानी सूनी होती है,
जब तन में , मन में, सिरहन दौड़े कोई जगह ना पाती है ,
भावना मसि हो जाती है , कागज को रंग जाती है .
मै सरस्वती की बेटी का वो सबसे छोटा बेटा हूँ
जिसको खुद कविता आकर सपनों से सुबह जगाती है
मै कब कविता कहता हूँ ,ये खुद ही तो बन जाती है .

नवयुवती के अधरों का पहला सकुचाया चुम्बन बन जाती है ,
स्वर्णिम राजमुकुट के कंचन सी ,बैठ भाल पर इतराती है ,
जब मैं खुद से बेसुध होता और निराशा छाती है ,
जब सच्चे वैरागी सी , ये ही तो अलख जगाती है ,
जब चारों और अँधेरा बाहर- भीतर हो घनघोर चढ़ा
उषा के नभ तल पर यही तो रवि रश्मि बिखराती है ,
मै सरस्वती की बेटी का वो सबसे छोटा बेटा हूँ
जिसको खुद कविता आकर सपनों से सुबह जगाती है
मै कब कविता कहता हूँ ,ये खुद ही तो बन जाती है .

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