सोमवार, 16 मार्च 2015

याद आ गई।

जब जमीं को भिगोती हुई बरसात याद आ गई।
तेरे पहलू में थी लिपटी वो रात याद आ गई।

बूंदों की छमछम में तेरे पायल की रुनझुन सुनी
आँखों ने आँखों से कह दी वो बात याद आ गई।

प्यार को खेल समझा नहीं,प्यार में ही मिट गए।
पर वक़्त की शह ने दी जो वो मात याद आ गई।

जी रहा हूँ इससे ज्यादा और क्या मैं शिकवा करूँ।
तेरी हंसी के बदले मिली दर्द की सौगात याद आ गई।

आज जब एक और दिल को देखा ठोकरें खाते हुए।
तब तुमसे हुई वो आखिरी मुलाक़ात याद आ गई।
वैभव”विशेष”

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