बुधवार, 18 मार्च 2015

आ वापस इस शहर को

ढूंढ़ता रहता हूँ तुझे ख्यालो में
तेरे इक झलक पाने को
यार जाने के बाद तेरे
दोस्त बनाया हूँ मयखाने को

सपने तेरे सजाने के लिए
ठुकराया था रस्मो-रिवाजो को
दिल जा तेरे नाम किया था
मुझे छोड़ी थी तूने गैर पाने को

अपने हर खुशियाँ कुर्बा किया था
तुझे मुस्कुराते हुए देखने को
पर न समझी थी तू उस वक्त
इस पागल तेरे आशिक को

तूने बसा ली है नई जहां
कुचल के मेरे अरमानो को
सदा के लिए न बन बेखबर
आ वापस इस शहर को

सहा न जाता है आलम दिल की
दोस्त बनाया हूँ मयखाने को
जी रहा हूँ मर-मर के यहाँ
बस इक झलक तेरे पाने को

जानता हूँ गलत कर रहा हूँ
तू पास आ जा समझने को
चाहे ज़माना कुछ भी समझे
तू पास आजा मिलने को

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