सोमवार, 16 मार्च 2015

चंद शेर

उड़ गया वक़्त लगा के पर जाने किसके ,
कहा बहुत , मगर रह गया सबकुछ उसे बताने को .
मर्ज़ -ऐ -इश्क़ भला कब तलक छुपाते सबसे ,
नाम आया उसका , और खबर लग गयी ज़माने को .

उठाये फिरता है इबादतों का बोझ सर पर अपने ,
जगा रखा है खुदा को भी उसने , मन्नतें अपनी चंद मनाने को .

अरे सुन , रुक , ठहर , ज़लज़ले थोड़ा ,
अभी कहाँ निकला हूँ , मैं दुनिया कोई बसने को .
रहने दे भटकता कुछ देर और यूँही “अबाध ”
देखना मंजिलें खुद चली आएँगी , रास्ता तुझे दिखाने को .

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